एक बहुत ही सिद्ध गुरु थे |वह ब्रह्म ज्ञानी थे | भक्तों की
उनके प्रति अपार श्रद्धा भावना थी | उनकी मधुर वाणी में प्रवचन सुनकर भक्तों को ज्ञान
और अपार शांति प्राप्त होती थी | उनका यह नियम
था कि वह पहले प्रवचन करते थे उसके बाद स्टेज पर बैठकर ही सतसंग में उपस्थित प्रत्येक भक्त को दर्शन करने
का , आशीर्वाद प्राप्त करने का और सेवा राशि देने का अवसर देते थे | जब सतसंग में उपस्थित सभी भक्त गुरूजी के दर्शन करके आशीर्वाद प्राप्त
करके संतुष्ट हो जाते तो वो तभी स्टेज से उतरकर अपनी कुटिया में जाते थे और वहां जाकर
ध्यान साधना में लीन हो जाते थे |
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एक दिन की बात है प्रत्येक दिन की तरह गुरूजी ने प्रवचन किये उसके बाद सतसंग में उपस्थित भक्तो को दर्शन, आशीर्वाद दिए और भक्तो ने गुरूजी को सेवा /दान राशि भी अर्पित कर दी | लेकिन गुरूजी प्रवचन स्थल से उठकर अपनी कुटिया में नहीं गए जबकि उनका ध्यान साधना में बैठने का समय हो चुका था | शिष्य आश्चर्यचकित हो रहे थे की गुरूजी प्रवचन इत्यादि के तत्काल बाद ही बिना विलम्ब किये कुटिया में जाकर ध्यान साधना में लीन हो जाते हैं | लेकिन आज प्रवचन स्थल से उठ क्यों नहीं रहे | जबकि गुरूजी हर कार्य अपने निर्धारित समय पर ही करते थे | अपनी दिनचर्या में किसी भी प्रकार का परिवर्तन नहीं करते थे | एक शिष्य ने गुरुदेव से पूछा कि, 'सभी उपस्थित भक्त दर्शन करके जा चुके हैं, अब तो कोई भी नहीं बचा फिर आप क्यों बैठे हुए हो ' | तब गुरूजी ने उत्तर दिया की अभी एक भक्त ने दर्शन नहीं किये हैं वह बाहर आश्रम के द्वार पर बैठा है | जाकर उसे कहो दर्शन करने के लिए गुरूजी उसे बुला रहे हैं ' | शिष्य ने बाहर जाकर देखा वहां पर वास्तव में एक भक्त बैठा हुआ था उसे गुरुदेव का संदेश दिया गया | वह भक्त गुरुदेव के पास श्रद्धा भाव से आया दर्शन किये | सेवा के लिए जो राशि लाया था झिझकते हुए गुरूजी के चरणों में अर्पित की तथा गुरूजी ने उसे आशीर्वाद दिया | उसके बाद गुरुदेव उठकर अपनी कुटिया में चले गए |
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सभी शिष्य हैरान थे कि इस भक्त में ऐसा क्या विशेष था कि जिसके लिए गुरुदेव स्वयं इसका इंतजार कर रहे थे | गुरुदेव तो आश्रम में उपस्थित होने वाले अति विशिष्ट व्यक्तियों को भी कोई अधिक महत्व नहीं देते थे | एक शिष्य ने अपनी जिज्ञासा शांत करने के लिए गुरुदेव से पूछ ही लिया , 'गुरुदेव आप उस भक्त का स्वयं क्यों इंतज़ार कर रहे थे ' | तब गुरुदेव ने बताया कि, 'यह भक्त सतसंग में आने के लिए बस के किराये के लिए एक साल से पैसे जमा कर रहा था | साल भर पैसे जमा करने के बाद भी इतनी कम राशि जोड़ पाया की उसे लगा यदि मैं बस में सतसंग सुनने जाता हूँ तो अधिकांश पैसे किराये में ही लग जायेंगे तो मैं सेवा के लिए क्या अर्पित करूंगा | ऐसा विचार करके इसने पैदल आने का निर्णय लिया और यह आठ दिन पैदल चलकर यहां पर पहुंचा था |
लेकिन रास्ते में उसे
एक अत्यंत वृद्ध व्यक्ति मिला, जो कि बहुत ही कमजोर और बीमार था | वह वृद्ध कई दिन
से भूखा था | उसके मुंह में अनाज का एक दाना भी नहीं गया था | भूख और कमजोरी के कारण
वह चलने फिरने में भी असमर्थ सा हो गया था | उस वृद्ध की यह दयनीय स्थिति देखकर इस
भक्त का ह्रदय दया से भर गया |भक्त ने यह महसूस किया कि यदि इस वृद्ध की तुरंत मदद
नहीं की गई तो भूख और बीमारी के कारण कुछ ही समय में इसकी मृत्यु होना निश्चित है | भक्त के लिए एक और श्रद्धा भक्ति थी तो दूसरी
और इंसानियत का फर्ज था | इसने वृद्ध के प्राणों की रक्षा करना ही उचित समझा | भक्त ने अपनी जमा राशि में से उसके लिए भोजन और दवा का
प्रबंध कर दिया |
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वृद्ध की स्थिति में
भोजन और दवाई लेने के बाद काफी सुधार हो गया था | वृद्ध की सेवा करने में ही अधिकांश
पैसे खर्च हो गए थे | इस कारण अब यह झिझक रहा
था की शेष बची इतनी कम धनराशि मैं सेवा के
लिए कैसे अर्पित करूं | अब आप ही सोचो मैं ऐसी
परोपकार की भावना, आस्था एवं विश्वास रखने वाले भक्त को बिना दर्शन दिए कैसे उठ सकता था
| गुरूजी के मुख से यह सुनकर सभी शिष्य उस भक्त की परोपकार की भावना और गुरूजी की दिव्य दृष्टि के प्रति नतमस्तक हो गए |
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